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Writer's pictureSagar Kumar

घुमक्कड़ों की गीता ‘घुमक्कड़ शास्त्र’!

बकौल राहुल सांकृत्यायन, “संसार में यदि कोई अनादि सनातन धर्म है, तो वह घुमक्कड़ धर्म है।” और बकौल मेरे, यह किताब, घुमक्कड़ शास्त्र, उस धर्म का आधुनिक पवित्र ग्रंथ है, कि जिसका पाठ इसके अनुयायियों को साँसों की तरह अनिवार्य है―हालाँकि ऐसा भी कोई कट्टर आग्रह नहीं है, फिर भी। घुमक्कड़ी, यानी सीधे शब्दों में, घूमना। घूमते तो हम सभी हैं, मगर हम घुमक्कड़ नहीं हैं। घुमक्कड़ हैं कौन? घुमक्कड़ी क्या है? आ तो घुमक्कड़ वे लोग, जिन्होंने एक शुरुआती उम्र के बाद के घर छोड़ दिया और फिर मृत्युपर्यन्त विचरते रहे। जिनके लिए अंग्रेज़ी में नोमैड, वैगाबॉण्ड, जिप्सी आदि शब्द प्रचलित हैं―‘इनटू द वाइल्ड’ याद आयी ना? बस, वही हैं घुमक्कड़। यानी, घूमना जिनके लिए शौक और/या जीवन से ब्रेक लेने की वस्तु नहीं है बल्कि जीवन ही है, पेशा है, वे हैं घुमक्कड़। घुमक्कड़ी इनके कार्य का संज्ञारूप।


राहुल स्वयं जीवन भर एक घुमक्कड़ रहे। हिंदी के आधुनिक यात्रा वृतांत को विधा के रूप में प्रचलित किया और कितनी तो यात्राएँ कीं। यह किताब उन्हीं यात्राओं से प्राप्त अनुभवों, ज्ञान और जानकारियों का एक छोटा संग्रह है, जिसमें भावी घुमक्कड़ों को घुमक्कड़ी के लिए वे सारी बातें विस्तार से बतायी गयीं हैं, जिनको घर से निकलने से पहले जान लेना आवश्यक है और वे सारी ज़िम्मेदारियाँ, शर्तें तथा सुझाव हैं, जो घुमक्कड़ी करते वक्त ज़रूरी होती हैं―क्योंकि राहुल बार बार ज़ोर देकर कहते हैं, घुमक्कड़ी स्वान्तः सुखाय नहीं है, इसका एक उद्देश्य निरुद्देश्य घूमने में भी है।


किताब के शुरुआती हिस्सों में बाधाओं और प्रेरणाओं का इतना कमाल का ज़िक्र है कि किताब पढ़ते वक्त मन होता है कि ‘अबे छोड़ो बे ये जीवन-संबंध वगैरह और दो तीन किताबें उठा के निकल पड़ो किसी रात!’ लेकिन फिर होता है कि नहीं, कोरोना है, रुको कुछ साल, सबर करो! हालाँकि यह बात तो बिला शक कही जा सकती है कि चाहे आप घुमक्कड़ हों या शौक़ के लिए ही घूमते हों, यह किताब आपको घूमने के प्रति इतना ऊर्जावान तो बना ही देगी कि अगली बार घूमने जाते वक्त दूसरा विचार नहीं आएगा।


किताब में 15 अध्याय हैं। सबमें भिन्न भिन्न विषयों पर राहुल के अपने विचार, इतिहास से कई कई उदाहरण तथा यात्राओं के छिटपुट ज़िक्र हैं। लड़कियों के घूमने पर भी एक अध्याय है, जिसमें उस समय का तो छोड़िए, आज के हिसाब से भी बहुत खुले विचार हैं। किताब जैसे जैसे ख़त्म होती जाती है, समझ आता जाता है कि घूमना किसी तारीख़ की टिकट कटा, एकाध हफ़्ते होटल आदि में रुक, दो चार तस्वीरों के साथ पाँच छह सस्ती फेसबुक पोस्ट लिख, घर वापिस लौट कर बायो में वांडरर, वांडरलस्ट लिखना तो कतई घुमक्कड़ी नहीं है! यह महज घूमना है, जो होना चाहिए; मगर घुमक्कड़ी, वह तो एक अलग ही कला है। उसको करने की शुरुआत हेतु भी बहुत मेहनत की आवश्यकता है, करते वक्त तो ख़ैर है ही और उत्तरार्ध में भी ढेर सारी ज़िम्मेदारियाँ हैं जैसे लिखना, या किसी भी तरह से यात्राओं का वर्णन छोड़ जाना आदि। घुम्मकड़ी में भी अलग अलग लेवल्स, श्रेणियाँ आदि हैं, जो कदमों से नापी ज़मीन के अनुपात और सालों की मेहनत और अनुभव से तय होती हैं। अन्य शब्दों में, नाम से ही ज़ाहिर, किताब घुमक्कड़ों का वह शास्त्र है, जो उन्हें सिखाता है कि घूमते कैसे हैं।


भाषा प्रवाहमयी, परिमार्जित और सरल है। हास्य का पुट भी कहीं कहीं मिल जाएगा। हिंदुस्तान, चीन और वृहत्तर भारत के अन्य देशों के कुछ घुमक्कड़ों के बारे में खूब विस्तारपूर्ण बयान हैं और ह्रास हुई भारत की घुमक्कड़ी पर क्षोभ भी। कुछ वन्य जातियों का डिटेल्ड वर्णन है तथा घुमक्कड़ी के लिए ज़रूरी कुछ कामों और कलाओं पर टिप्पणियाँ और सुंदर उदारहण भी। कुछ विदेशी जातियों और घुमक्कड़ों के बारे में भी महत्वपूर्ण जानकारियाँ हैं। यह भी कि कैसे एक भारतीय जाति घूमते घूमते भारत से बाहर निकल गयी और विदेशों में ही उसकी पीढ़ियाँ रह गयीं―यद्यपि घुमक्कड़ी करते ही―और आज उन्हें पता ही नहीं है कि वे कभी भारतीय थे। राहुल कहते हैं कि यह दुनिया घुमक्कड़ों ने बनाई है। लोगों ने घूम घूम कर जगहें खोजीं―जैसे वास्को डा गामा और कोलंबस―फिर अलग अलग जगहों के लोग अन्य अलग अलग जगहों को गए और दुनिया को विस्तार मिला―मनुष्य एक जंगम प्राणी है और ऐसे काम उसे करते रहने चाहिए। कुल मिलाकर घुमक्कड़ी के बारे में अच्छी जानकारियाँ और प्रेरणाएँ देती किताब है।


किताब छोटी है। किंडल के संस्करण में वर्तनी की ख़ूब गलतियाँ हैं, गद्य कोश पर पूरी किताब उपलब्ध है, मगर उसमें भी यही गलतियाँ हैं। अगर पढ़ने जा रहे हैं, तो किताब के शब्दों से ज़्यादा अपने भाषिक विवेक पर भरोसा करें। अपरिचित शब्दों का क्या करना है, मुझे भी नहीं आया समझ। मुझे नहीं पता किताब के प्रिंट में भी ऐसी गलतियाँ हैं या नहीं, इसलिए सुझाव खरीद के पढ़ने का ही रहेगा, गलतियाँ हुईं तो ठीक, ना हुईं तो बस फिर और क्या!


अंत में, किताब है शानदार! मतलब काफी ज़ोरदार। घूमने को लेकर इतना गंभीर अप्रोच, इतनी निष्ठा देखकर तो जी जुड़ा जाता है। अंदाज़ हो जाता है कि आख़िर क्यों हिंदी के यात्रा वृत्तान्त का नाम लो तो राहुल सांकृत्यायन मन में आते हैं! क्यों उनको पढ़ना इतना ज़रूरी समझा जाता है। मौका मिले तो पढ़ें, और अगर किसी यात्रा में पढ़ सकें तो बेहतर। मुझे यक़ीन है तब कुछ और अलग तरीके से किताब हिट करेगी। पढ़ें और जानें कि क्यों घुमक्कड़ी या घूमना इतनी ज़रूरी चीज़ है। कैसे यह जीवन के अलग अलग हिस्सों और पूर्णता में जीवन को भी, सुंदर बनाती है, उसे परिमार्जन बख्शती है। क्यों राहुल कहते हैं कि घुमक्कड़ी किसी बड़े योग से कम सिद्धिदायिनी नहीं है, और निर्भीक तो वह एक नंबर का बना देती है (अध्याय 1: अथातो घुमक्कड़ जिज्ञासा)! कि घुमक्कड़ी एक रस है, जो काव्य के रस से किसी तरह भी कम नहीं है (अध्याय 4: स्वावलंबन)। बाकी राहुल सांकृत्यायन का पसंदीदा शे’र तो, जो उनके जीवन का ध्येय भी रहा है, किताब को दो मिसरों में ही बाँध देता है ―


“सैर कर दुनिया की ग़ाफ़िल ज़िंदगानी फिर कहाँ

ज़िंदगी गर कुछ रही तो ये जवानी फिर कहाँ”


~ ख़्वाजा मीर दर्द


“जयतु जयतु घुमक्कड़ पंथा!”

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