हिंदी का महाकोश तो वह रत्नाकर निधि है जिसके रत्नो से कोई भी अनभिज्ञ नहीं है हिंदी के इस अथाहकोष के कुछ रत्नो ने मुझे भी आकर्षित किया है| यद्य पि पुस्तकों के बृहत् अध्ययन से मैं अभी वंचित हूँ कतिपय जिन पुस्तकों का मैं स्वाध्याय कर चुकी हूँ उनसे मैं आल्हादित हूँ|
हिंदी साहित्य जगत के कथा सम्राट ख्यातिलब्ध मुंशी प्रेमचंद्र की कलम तूलिका से रचित उपन्यास "निर्मला" की बात मैं यहां करने जा रही हूँ जो एक अनुपम कृति है| इस उपन्यास की नायिका निर्मला १५ वर्ष की सुन्दर व सुशील युवती है| जिसका विवाह दहेज के कारण नहीं हो पा रहा है |किसी कारणवश उसकी पिता की मृत्यु हो जाती हैं| दहेज़ की राशि ना होने के कारण उसका विवाह एक अधेड़ उम्र के आदमी के साथ कर दिया जाता है| शुरुआत में निर्मला इस विवाह को स्वीकार ही नहीं कर पाती है| उस बालिका के दुःख का अंदाजा सहज ही लगाया जा सकता है, जब उसी के उम्र का लड़का उसे माँ कह कर सम्बोधित करता है| फिर भी निर्मला उस परिवार के साथ अपना ताल-मेल व घनिष्टता बढ़ाने की कोशिश करती है| इसी कोशिश के बीच उसके पति मुंशी तोता राम को यह शक हो जाता कि उसकी पत्नी और उसके बड़े बेटे की बीच कुछ गलत संबंध हैं| इसी शक के कारण वो अपने बड़े बेटे को हॉस्टल भेज देता है| इसी के बाद परिवार के बीच मन-मुटाव और तनाव का दौर शुरु होता है| धीरे-धीरे परिवार में शंका और क्लेश बढ़ता जाता है और एक-एक करके सभी सदस्य निर्मला से दूर होते जाते है|
वास्तव में यह एक मार्मिक कथा है जिसके द्वारा हमारे समाज के कटुसत्य प्रकट होते है| मैंने जब ये उपन्यास पढ़ा तो कुछ समय के लिए काफी भावुक हो गयी थी| मैंने इस उपन्यास से आज़ादी से पहले के समाज के बारे में बहुत कुछ जाना है जिनमे से कुछ तो आज भी प्रासंगिक है | प्रथम और महत्वपूर्ण,आज भी हमारे समाज में मध्यम वर्गीय परिवार में दहेज राशि नहीं होने के कारण बेटियों को बेमेल विवाह के बंधन में बांध दिया जाता है| जो कि मध्यम वर्गीय समाज की लड़कियों के साथ हो रहे बेमेल विवाह और दहेज़ प्रथा जैसी कुरीतियों के बुरे प्रभाव को दर्शाता करता है| जो कि हमें झकझोर देने और सोचने पर मजबूर कर देते हैं| दूसरा मैंने यह भी जाना की किसी के बारे में ग़लत राय बना लेना कितना आसान होता है, कितनी जल्दी हम गलतफहमियां पैदा कर लेते है| चाहे पैसा, आत्मसम्मान, वफ़ादारी या प्रेम की भी बात क्यों ना हो, सच्चाई जानने के जगह हम ग़लतफ़हमी को पलभर में जगह दे देते है| भले ही यह किताब 90 साल पहले लिखी गयी थी, लेकिन आज भी हमारे समाज के काफी इलाकों में ऐसा देखने को मिल ही जाती है जहाँ महिलाओ को शक के दायरे में रखा जाता है|
मैं इस उपन्यास के एक-एक चरित्र व बातों को आज के जीवन से जोड़ पा रही हूँ| पुस्तक में भले ही ग्लानि, प्यार व जलन सब है| लेकिन इसकी सादगी व भाषा ने मेरा दिल जीत लिया है| हिंदी भाषी होने के नाते इस उपन्यास को जरूर पढ़िए| इसे पढ़ने से आपको एक अलग ही साहित्यिक दुनिया की अनुभूति होगी| इस उपन्यास के कुछ रोचक वाक्य मैं आपको बताना चाहूंगी ताकि आपको भी हिंदी गद्य साहित्य की झलक मिल जाए और आप इसे पढ़ने को उत्सुक हो|
"जीवन तुमसे ज्यादा कोई कोमल चीज है क्या, ये उस दीपक केही भांति क्षणभंगुर नहीं जो, हवा के एक झोंके से बूझ जाता है| पानी के एक बुलबुले को देखते हो लेकिन उसे भी टूटते देर नहीं लगती है | जीवन में भी उतना सार ही नहीं और साँस का क्या भरोसा है और इसी नश्वरता पर हम न जाने अभिलाषाओं की कितने ही महल तैयार कर लेते है | ये भी नहीं जानते की नीचे जाने वाली साँस ऊपर आएगी भी या नहीं, लेकिन सोचते इतनी दूर की है मानो हम अमर है "| वाक़ई ये कृति काफी मार्मिक है| जिसे सौ बार भी पढ़ा जाये तो अकथनीय होगा |
Komentarze